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चिपको आंदोलन और गौरा देवी के वन प्रहरी साथी

विनय सेमवाल
गोपेश्वर

वनों को बचाने के अहिंसक आंदोलन चिपको के सभी योद्धाओं को आंदोलन की ४७वी वर्षगांठ पर नमन ।जब अस्सी की दशक की शुरुआत में हिमालय के सुदूर ठेट अतंर्वर्ती क्षेत्रों में गांधीवादी अहिंसा के विचारो को आत्मसात् किए हुए लोगों तथा मुख्य रूप से महिलाओं ( बमुश्किल ही घरों से बाहर निकलती थी) का हुजूम अपने पूर्वजों द्वारा सदियों से सहेजकर रखे गए जंगलों को बचाने के लिए “वन जागे वनवासी जागे”, “पेड़ नहीं हम कटेंगे, पेड़ से पहले हम कटेंगे” के नारों के साथ गांवों की पगडंडियों से उतरकर कस्बों की सड़कों पर उमड़ पड़ा था। जो शायद स्वतंत्रता के बाद इस क्षेत्र में गांधी वादी अहिंसा तथा सविनयअवज्ञा की पहली धमक व दस्तक भी थी। जिसकी कमान सर्वोदई चंडी प्रसाद भट्ट के हाथों में थी। जिसने यह पुनर्जीवित करने के साथ ही साबित भी कर दिया कि प्रकृति व मानव दोनों के बीच के सहजीवन व सहआस्तित्व के संबंध को नकारा नहीं जा सकता। यह चिपको का व्यापक प्रभाव ही था कि जिसके आगे सरकार को झुकना पड़ा और मानव तथा जंगलों के बीच सहस्तित्व व सहजीवन के अंतर्सम्बन्ध को स्वीकार करना पड़ा, जिसे पहले वह अपनी विकास की सोच के आगे दरकिनार करने पर तुली हुई थी। यह चिपको की अभी भी जनमानस में पड़ा गहरा प्रभाव ही है कि अभी भी जब कहीं पर भी औचित्य से परे विकास के नाम पर जंगलों का विनाश होता है तो वहा जंगलों को बचाने के लिए पुनः इसकी धमक उठ जाती है।
२४ अप्रैल १९७३ को जब मंडल (जिला मुख्यालय गोपेश्वर से १३ किमी. की दूरी पर स्थित एक समीपवर्ती गांव) के जंगलों में साइमन कंपनी के मजदूर अंगू के पेड़ों के चिरान (कटान ) के लिए पहुंच गए थे, तब गांधीवादी समाज सेवी व सर्वोदयी नेता श्री चंडी प्रसाद प्रसाद भट्ट जी के नेतृत्व में दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल के कार्यकर्ताओं शिशुपाल सिंह, भूपाल सिंह, चक्रधर प्रसाद तिवारी, विशंबर दत्त थपलियाल, मुरारी लाल,अब्बल सिंह,मंडल घाटी के सभापति व समाज सेवी आलम सिंह बिष्ट( जिनकी अध्यक्षता में उस दिन मंडल में बैठक आयोजित की गई थी) विद्या दत्त त्रिपाठी(कांग्रेस के जिला मंत्री), बचन लाल सहित मंडल घाटी के सभी गांवों खल्ला,मंडल, बंणद्वारा, कोटेश्वर, बैरागना, कुनकुली, सिरोली की मातृ शक्ति तथा ग्रामीणों ने वनों को बचाने के लिए “पेड़ नहीं हम कटेंगे, पेड़ से पहले हम कटेगें” के दृढ़ संकल्प के साथ पेड़ों पर चिपककर इस अहिंसक आंदोलन का शंखनाद किया था। मंडल घाटी से आगे चलकर इस आंदोलन की गूंज केदार घाटी, नीति घाटी, हेंवल घाटी, भ्यूंडार घाटी, से होते हुए उत्तरकाशी, चांचली धार, अल्मोड़ा तक पहुंची। परिणाम स्वरूप सरकार को पेड़ों के चिरान के लिए दिए गए ठेकों के आवंटन को निरस्त करना पड़ा।
पर्यावरण विद तथा प्रसिद्द पत्रकार अनुपम मिश्र चिपको आंदोलन पर लिखी अपनी किताब ” चिपको” में इस जन आंदोलन के प्रस्फुटित होने के कारणों तथा आंदोलन में चंडी प्रसाद भट्ट तथा उनकी संस्था दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल की भूमिका के साथ ही आंदोलन के शुरआती दिनों के बारे में “चिपको चिपको” शीर्षक में विस्तार से लिखते हुए बताते है कि १ अप्रैल १९७३ को पेड़ों को कटने से बचाने के उपायों के विषय पर विचार के लिए दशोलि ग्राम स्वराज्य मंडल के आंगन में एक बैठक रखी गई। जिसमें संस्था के कार्यकर्ताओं,दशोली ब्लाॅक के सभापतियों के अलावा कांग्रेस, भारतीय साम्यवादी दल और जनसंघ, शोषित समाज दल के जिला स्तरीय सदस्य तथा स्थानीय पत्रकार भी मौजूद थे। बैठक में कई तरीके रखे गए। जैसे पेड़ काटने आए मजदूरों की गाड़ी के आगे लेट जाना, छपे हुए पेड़ों को कटने से पहले ही जला देना , मजदूरों के आने से पहले ही पेड़ो को काट देना, आदि । सभी के विचारों को सुनने के पश्चात् अंत में चंडी प्रसाद भट्ट ने कहा हमारा उद्देश्य पेड़ों की रक्षा करना है , उनको नुकसान पहुंचाना नहीं। क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि जब वो पेड़ काटने आए तो हम पेड़ों से चिपक जाए और कहें कि पहला वार हमारी पीठ पर करो जिसका बैठक में उपस्थित सभी लोगों ने तेज स्वरों में “हम पेड़ों से चिपक जाएंगे” चिल्लाकर एकमत से समर्थन किया । और तुरंत चिपको की व्याख्या का एक प्रस्ताव लिखने के साथ ही एक ज्ञापन की एक- एक प्रति उप अरण्यपाल और जिलाधीश के माध्यम से मुख्यमंत्री को यह कहते हुए दी गई कि यहां पर अंगू के पेड़ नहीं कटेंगे और यदि उन्हें बलपूर्वक जबरन काटने की कोशिश की गई तो लोग उनसे चिपक जाएंगे।
चंडी प्रसाद भट्ट जी द्वारा आंदोलन के दौरान सरकार द्वारा किसी भी दमनात्मक कार्यवाही की परस्थिति में उसकी प्रतिक्रिया में हिंसक न हो इसके लिए क्षेत्र के वरिष्ठ समासेवी श्री आलम सिंह बिष्ट जी की अध्यक्षता में एक निगरानी समिति भी बनाई गई।आंदोलन में अहिंसा की जड़े इतनी गहरी थी कि पेड़ों को काटने आए मजदूर संस्था के भवन में ही रुके थे क्योंकि तब गोपेश्वर में होटल नहीं थे तथा संस्था के अथिति भवन में रहने की व्यवस्था हो जाती थी। लेकिन ऐसे में यह जानते हुए भी कि ये पेड़ काटने वाले मजदूर हैं संस्था कार्यकर्ताओं व आंदोलन से जुड़े लोगों ने नही उनके प्रति कोई वैमनस्य की भावाना रखी और नहीं उनके साथ अपने ब्यवहार में कोई कड़वाहट ही रखी।
नमन है उन सभी आंदोलनकारीयों को जिन्होनें वनों को बचाने के लिए पेड़ों पर चिपकते हुए, “पेड़ नहीं हम कटेंगे, पेड़ से पहले हम कटेगें” के अहिंसक प्रतिकार के द्वारा संपूर्ण विश्व को उस दौर में जब औेद्योगिकिकरण एवं विकास की दौड़ में जल, जंगल, जमीन, जैसे आधारभूत संवेदनशील विषय नेपथ्य में छिपकर गौंण हो गए थे, ऐसे में हिमालय के सुदूर अंतर्वर्ती गांवों से उठी इस गूंज ने राष्ट्रीय ही नहीं अपितु अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण जैसे संवदेनशील विषय पर न केवल सोचने के लिए मजबूर किया बल्कि नीति नियंताओं को यह संदेश भी दिया कि पर्यावरण की अनदेखी करते हुए उनकी विकास की यह नव अवधारणा औचित्य विहीन तो है ही साथ संपूर्ण प्राणी जगत के अस्तित्व के साथ खिलवाड़ भी है।यदि इन विषयों पर अभी गंभीरता पूर्वक नहीं सोचा गया तो इसके दुषपरिणामों को हमारी आने वाली पीढ़ियों को भुगतना पड़ेगा।
“आए इस अवसर पर सभी आंदोलनकारियों को पुनः नमन करते हुए हिमालय के साथ अपने जंगलों को बचाने का संकल्प लें”