17 अक्तूबर 1920 से 17अक्टूबर 2024
इतिहास गवाह है कि दुनियाभर के दबी कुचली जनता की राष्ट्रीय आकांक्षाओं को रूस की अक्टूबर क्रान्ति ने एक दिशा देने का कार्य किया है । रूसी क्रान्ति के बाद दुनिया के बहुत सारे हिस्सों में कम्युनिस्ट पार्टियाँ अस्तित्व में आयी । वर्ष 1918 से 1931 के बीच की अवधि में एशिया महाद्वीप के अन्दर तुर्की, इन्डोनेशिया, चीन, भारत, जापान, वर्मा (मांय्नमार), फिलीपींस सहित लगभग एक दर्जन देशों में कम्युनिस्ट पार्टियाँ अस्तित्व में आ गईं ।
हिन्दुस्तान में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना ठीक कब हुई इस सवाल पर मतमतान्तर हैं । सीपीआई 26 दिसम्बर 1925 की तारीख को स्थापना दिवस मानती है । लेकिन हमारी पार्टी सीपीआई(एम)का मानना है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 17 अक्तूबर 1920 को मौजूदा उज्बेकिस्तान स्थित ताशकन्द में हुई थी । उस समय के अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी मानवेन्द्र नाथ राय (एमएन राय देहरादून) ने खुद ताशकन्द में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना करने में पहल की थी। बैठक में सात सदस्यों ने भाग लिया ,मौहम्मद शफीक़ को सचिव चुना गया ।
इसी अवधि में हिजरत आन्दोलन शुरू हो चुका था और कई साथियों द्वारा भारत छोड़ तुर्की की ओर रवाना हो गये थे । जब तुर्की में वे प्रवेश नहीं कर पाये तो उनमें से बहुत सारे ताशकन्द चले गये । ‘पूर्व के मेहनतकशों के विश्वविद्यालय’ (युनिवर्सिटी ऑफ द टॉयलर्स ऑफ द ईस्ट) में अध्ययन समाप्त करने के उपरान्त भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य साथियों ने भारत वापस आना तय किया । पार्टी के लिये भूमिगत तौर पर काम करने के लिये दस लोग ताशकन्द से भारत के लिये चले । आगे ये साथी एवं कुछ और लोग, गिरफ्तार कर लिये गये । नतीजे के तौर पर कम्युनिस्टों पर मुकदमे चले – पेशावर षड़यंत्र ( अब पाकिस्तान स्थित)का पहला एवं दूसरा मुकदमा चलाया गया ।
सन् 1922-24 में अंग्रेजी हुकूमत की ओर से दायर किये गये इन मुकदमों ने देश की जनता के सामने जाहिर कर दिया कि ,मज़दूरवर्ग एवं उसकी क्रांतिकारी पार्टी भारत के राजनैतिक परिदृश्य में उभर चुकी है । इस पार्टी के उभरने का प्रभाव था कि देश में अनेकों पत्र-पत्रिकायें प्रकाशित हुये एवं वितरित हुयी । लाहौर, बम्बई एवं कलकत्ता से प्रकाशित इन पत्रिकाओं में, भले ही अस्पष्टता के साथ लेकिन, परन्तु वैज्ञानिक समाजवाद का विचार का प्रचार था । इन विचारों से प्रभावित होकर विभिन्न राज्यों में कम्युनिस्टों के कई गुट बनें । आगे चलकर कम्युनिस्ट नेताओं पर कानपुर षड़यंत्र के नाम से मुकदमा दायर हुआ। इसमें कामरेड मुज़फ्फर अहमद, श्रीपाद अमृत डांगे, शौकत उस्मानी एवं अन्य कई कम्युनिस्टों को अभियुक्त बनाया गया ।
यह कहने की जरूरत नहीं है कि पार्टी की स्थापना यद्धपि विदेश में हुई, पार्टी बनाने वाले भारत के ही लोग थे एवं बनाने का उद्देश्य था भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन के लक्ष्य की प्राप्ति । आन्दोलन के उन प्रारम्भिक दिनों में, साम्यवाद के विचारों को लोकप्रिय बनाना प्राथमिक लक्ष्य था । पार्टी के प्रयासों से ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सन् 1921 में आयोजित अहमदाबाद कांग्रेस, सन् 1922 में आयोजित गया कांग्रेस तथा आगे के अधिवेशनों में कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र बाँटे गये । विशेष रूप से जिक्र करना चाहिये कि अहमदाबाद कांग्रेस में कम्युनिस्टों की ओर से मौलाना हसरत मोहानी ने देश की पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पेश किया(पूर्ण स्वतंत्रता का अर्थ राजनैतिक ,आर्थिक तथा सामाजिक स्वतंत्रता ) जिसे महात्मा गांधी के विरोध के कारण हटा दिया गया । इन प्रस्तावों एवं घोषणापत्रों में भारत की पूर्ण स्वतंत्रता को लक्ष्य रखा गया था एवं इस सवाल पर कांग्रेस को स्पष्ट समझ पर खड़े होने का सुझाव दिया गया था ।
दिसम्बर 1925 में, सिंगरवेलु चेट्टियार की अध्यक्षता में, कानपुर में कम्युनिस्ट गुटों का एक सम्मेलन हुआ जिसमें भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना का एवं मुम्बई में पार्टी मुख्यालय बनाने का प्रस्ताव पारित किया गया । ब्रिटिश हुकूमत के दमन का सामना करते हुये कम्युनिस्टों के लिये काम करना असम्भव होता जा रहा था इसलिये मज़दूरों एवं किसानों की पार्टी (वर्कर्स एण्ड पेज पिजेन्ट्स पार्टी) के नाम से एक खुला मंच बनाया गया । सन् 1920 में ही ऑल इन्डिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) अस्तित्व में आया ।
कम्युनिस्टों को इस संगठन में अधिकांशत: बड़ी भूमिका निभानी थी । इसी अवधि में देश के कुछ भागों में किसानों के भी संगठन बने । सन 1925 में, ऑल इन्डिया वर्कर्स एण्ड पि जेन्ट्स पार्टी का गठन कलकत्ता में हुआ । बाद में, 12 अगस्त वर्ष 1936 में लखनऊ में ऑल इन्डिया स्टूडेन्ट्स फेडरेशन (एआईएसएफ ) का अखिल भारतीय भारतीय सम्मेलन कै माध्यम से अस्तित्व में आया , कुछ ही वर्षों के अन्दर यह संगठन कम्युनिस्टों के प्रभाव में आ गया ।_
हालाँकि, भारी दमन का शिकार रहे एक कम्युनिस्ट पार्टी अन्तत:, ‘मेरठ षड़यंत्र’ के नाम से परिचित मुकदमें में सजा काट रहे बन्दियों की मुक्ति के बाद ही, सन 1933 में अस्तित्व में आ सकी । मेरठ षढ़यंत्र मुकदमा दायर किया गया था कम्युनिस्ट आन्दोलन के दमन के लिये, लेकिन यह कम्युनिस्टों को उनके अपने विचारों को प्रचारित करने का अवसर प्रदान किया । फलस्वरूप, सन 1933 में बनी पार्टी अपने घोषणापत्र के साथ आई एवं सन् 1934 में कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल के साथ सम्बद्ध हो गई ।
ब्रिटिश शासकों ने अपनी पूरी ताकत लगाकर कम्युनिस्ट आन्दोलन को कुचलने के प्रयास किये थे । समाजवाद से सम्बन्धित किसी भी प्रकार की सामग्रियों के प्रकाशन एवं वितरण पर कठोर पाबन्दियों के बावजूद विचारों के प्रसार को रोका नहीं जा सका । लेकिन, चूंकि ऐसे साहित्य सीमित थे परिणामस्वरूप विचारों का आदान प्रदान व्यापक नहीं था जिसके चलते भ्रम की स्थिति बनी रही । इसके बावजूद, समर्पण व प्रतिबद्धता के साथ कम्युनिस्ट लोग देश के मुक्ति संघर्ष एवं ट्रेड यूनियन एवं किसान आन्दोलन के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे ।
भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन के विकास में दो और बातों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । एक तो यह कि अतिवाद के रास्ते पर चल रहे क्रान्तिकारियों ने उस रास्ते को छोड़ा और कम्युनिस्टों के साथ आ गये । यह समझते हुये कि अंग्रेजी हुकमरानोंं कै खिलाफ अतिवादी रास्ता समाधान नहीं है अपितु लडा़ई कै लिऐ विशाल संगठन की आवश्यकता है,जो जनता से जुड़कर हि सम्भव है तथा कम्युनिस्ट विचारों से वे प्रभावित हुये एवं पार्टी से जुड़ गये । इनमें अनुशीलन, युगान्तर, शहिदै आजम भगत सिंह की हिन्दुस्तान सोश्यलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी एवं कुछ और गुटों को शामिल किया गया । नतीजे के तौर पर कम्युनिस्ट पार्टी भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के सबसे लोकप्रिय परम्पराओं को अपनी विरासत का हिस्सा बना पाये।
अखिल भारतीय स्वरूप स्थापित करने के कुछ ही वर्षों के अन्दर कम्युनिस्ट पार्टी ने राष्ट्रीय मुक्ति के आन्दोलन में एवं वैज्ञानिक समाजवाद के विचारों को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । कमज़ोर होने के बावजूद, भारतीय आन्दोलन को मदद करने में ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका भुलाई नहीं जा सकती । सन् 1926 के बाद से वे लगातार भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के साथ सम्पर्क बनाये हुये रहे । उनमें से कुछ सीधेतौर पर यहाँ के आन्दोलन से जुड़े रहे । इन्ही में से एक थे रजनी पाम दत्त । वे ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी के म्हत्वपूर्ण नेता थे । उनकी लिखी हुई किताब ‘आज का भारत’ (इन्डिया टुडे) अंग्रेजी हुकूमत में भारत एवं अंग्रेजों द्वारा किये जा रहे शोषण को समझने के लिये जरूरी एक कालजयी कृति है । ब्रिटेन की पार्टी ब्रिटेन में पढ़़ रहे भारतीय छात्रों की भी मदद करती रही । इनमें से कई छात्र भारत लौटने के बाद कम्युनिस्ट आन्दोलन से जुड़ गये । ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी के कई सदस्य हमारी मदद के लिये भारत आये । कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल के द्वारा कुछ भेजे भी गये । कुछ नाम बदलने के साथ आये और ट्रेड यूनियन व अन्य संगठनों में काम करते रहे । कईयों को ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तार भी किया। आने वालों में थे बेन ब्रैडली, फिलिप स्प्रैट, जॉर्ज एलिसन आदि। कुछ लोगों को मेरठ षड़यंत्र मुकदमा में भी फंसाया गया। उक्त मुकदमें के उन्नीस आरोपियों में मुजफ्फर अहमद, गंगाधर अधिकारी, पी सि जोशी, एस ए डांगे प्रमुख के साथ ही बी एफ ब्रैडली भी थे। इन सभी धाराओं नै मिलकर कम्युनिस्ट पार्टी को आगे बढ़ाया।
शुरुआती दौर के बाद कम्युनिस्ट आन्दोलन को अनेकों परीक्षाओं व कठिनाइयों से गुजरना पड़ा । 30 के दशक का अधिकांश समय एवं 40 के दशक की शुरूआत में भूमिगत रहकर काम करना पड़ा । अन्तत: सन 1942 में, फासीवाद-विरोधी युद्ध के दौरान पार्टी को कानूनी दर्जा दिया गया । भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का पहला कांग्रेस सन 1943 में मुम्बई में सम्पन्न हुआ ।
देश स्वतंत्र होने के बाद भी पार्टी को नये (भारतीय पूंजीपति) शासकों के कठोर दमन का सामना करना पड़ा । लेकिन सारे कुप्रयासों के बावजूद वे आन्दोलन के विकास को रोक नहीं पाये ।
तमाम गैर-कम्युनिस्ट प्रभाव, विकृति एवं भटकावों का सामना करते हुये आन्दोलन को कुछ गम्भीर गलतियों से भी गुजरना पड़ा । आज़ादी के पहले, साम्राज्यवाद के युग में पूंजीपतियों की भूमिका पर लेनिन के विश्लेषण की उपेक्षा की गई एवं मज़दूरवर्ग की पार्टी की स्वतंत्र भूमिका को हाशियै कर दिया गया । फलस्वरूप कई बार पार्टी की समझ दक्षिणपंथी भटकाव की ओर चली गई । दूसरा विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद, संशोधनवादी विचारधारा का प्रभाव पार्टी पर देखा गया । तत्पश्चात फिर से जन-उत्थानों का ऐसा एक समय आया जिसमें कम्युनिस्ट सक्रिय तौर पर हिस्सा ले रहे थे । आज़ाद हिन्द फौज के बन्दियों की मुक्ति के लिये जन-प्रदर्शन हो रहे थे । नौसेना विद्रोह एवं मज़दूरों द्वारा किया जा रहा उसका समर्थन कांग्रेस पार्टी को आतंकित कर दिया । संघर्ष सभी दिशाओं में व््यापक हो रहा था । 29 जुलाई 1946 को आम हड़ताल सम्पन्न हुई । बन्दियों की मुक्ति, वियतनाम में अमेरिकियों के हस्तक्षेप कै खिलाफ तथा वियतनाम का समर्थन व साम्राज्यवाद के विरोध में बंगाल के छात्र सड़कों पर उतर आये । बंगाल में किसानों का तेभागा आन्दोलन शुरू हो गया । मालाबार में किसान बगावत कर रहे थे । तेलंगाना के किसानों का सशस्त्र संग्राम शुरू हो गया 1940 के दशक का अन्त होते होते…पूंजीपति डर रहे थे कि जनसंघर्षों का ज्वार उभरने से क्रान्ति के नेतृत्व की पहल मज़दूरवर्ग के हाथों में चली जायेगी । कुछ देशों में, जहाँ राष्ट्रीय आज़ादी के संघर्षों के दौरान वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टियाँ नेतृत्व अपने हाथों में नहीं ले पाई, वहाँ की क्रान्ति को समाजवादी मार्ग की ओर अग्रसर करने में वे असफल रहीँ । एक बार पूंजीपति वर्ग के हाथों में सत्ता आ जाने पर, क्रान्ति को समाजवादी मार्ग की ओर अग्रसर करना और अधिक कठिन हो गया ।
एक लाख पार्टी सदस्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले 146 प्रतिनिधियों ने अपने को दक्षिणपंथी संशोधनवाद से साफ साफ अलग करते हुये संकल्प लिया कि, पार्टी का सातवीं कांग्रेस वर्ष 1964 के अक्तूबर-नवम्बर महीने में कलकत्ते में होगा । कलकत्ता में 31 अक्तूबर से 7 नवम्बर सन 1964 तक यह कांग्रेस (महधिवैशन) सम्पन्न हुई ।_ भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के इस सातवें कांग्रेस में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) का गठन हुआ । अन्तरराष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय स्तरों पर कम्युनिस्ट आन्दोलन के अन्दर मौजूद संशोधनवाद एवं संकीर्णतावाद के खिलाफ संघर्ष में सीपीआई(एम) का जन्म हुआ ताकि मार्क्सवाद-लेनिनवाद की वैज्ञानिक व क्रान्तिकारी विचारधारा की रक्षा की जा सके एवं भारत की ठोस परिस्थितियों में इस विचारधारा का प्रयोग सम्भव हो सके ।
आजादी के आन्दोलन की स्वर्णिम परम्परा में ,आन्दोलन में कम्युनिस्टों के बलिदान एवं योगदान को समझना जरुरी है कि किस तरह से कम्युनिस्टों ने आजादी कै मुक्ति संघर्ष में कुर्बानियों एवं संघर्षों की बेमिसाल कायम कर कभी मुड़कर पीछे नहीं देखा किन्तु इस अवसर पर यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि संघ परिवार को छोड़कर जहाँ आजादी के आन्दोलन में विभिन्न विचारधाराओं का समागम था ।भले उनमें मत भिन्नता रही हो , कम्युनिस्टों एवं क्रान्तिकारियों का सर्वोच्च बलिदान इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में दर्ज है । कम्युनिस्ट ही हैं जिन्होंने साम्राज्यवादी विरोधी जज्बे को विचार एवं आन्दोलन का हिस्सा बनाया ,जो परपम्परा आज भी बदस्तूर चली आ रही है।आजादी के बाद भी मजदूर किसान ,समाज के दबे कुचले वर्ग की बुनियादी समस्याओं के लिए कम्मुनिस्टों का संघर्ष उल्लेखनीय है । विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भी इसे यानि कम्युनिस्ट आन्दोलन को और भी अधिक तेज एवं बिस्तार करने की आवश्यकता है ।