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अमेरिकी चुनाव सचमुच धड़कन बढ़ाने वाला

हरिशंकर व्यास
यों कोई भी देश हार्ट अटैक से नहीं मरा करता। सभ्यता-संस्कृति अचानक मुर्दा नहीं बनती। सभ्यता-संस्कृति की मौत की वजह हमेशा असुरी-बर्बर सेनाएं हैं। इसलिए डोनाल्ड ट्रंप, हिटलर पैदा हो जाएं तो वह राष्ट्र विशेष बरबाद जरूर होगा पर मरेगा नहीं। बावजूद इसके अमेरिका में जरासंध यदि राष्ट्रपति हुआ तो उसका विभाजित और खोखला होना तय है। पुतिन, शी जिनफिंग, किम जोंग उन, तालिबानी आदि उन सभी असुरी शैतानों की पौ बारह होगी जो अवसर की प्रतिक्षा में हैं।

याद रखें ट्रंप ने ही तालिबानियों को न्योत कर उनसे करार किया था। क्या परिणाम निकला? तालिबानी पूरे अहंकार से अफगानिस्तान में काबिज हैं। इसलिए डोनाल्ड ट्रंप उस सनक, उस अहमन्यता का प्रतीक हैं, जिसके ‘मैं’ में अमेरिका कैद होगा। उनको इस चुनाव में ईसाई कैथोलिक, कट्टरपंथी गोरों के धुव्रीकरण से शक्ति प्राप्त है। इसकी धुरी में यह विचार है कि कुछ भी हो जाए एक अश्वेत, महिला तथा मूल दक्षिण एशियाई चेहरे (सभ्यता-संस्कृति में बाहरी) को अमेरिका का राष्ट्रपति नहीं बनने देना है!

तभी पिछले डेढ़ महीने में अमेरिका में वह होता हुआ है, जिसकी कल्पना नहीं थी। मैंने आम धारणा के विपरीत 2020 में डोनाल्ड ट्रंप बनाम बाइडेन के मुकाबले में बाइडेन के जीतने की संभावना मानी थी। तब लिखते हुए मेरा तर्क था कि अमेरिका में स्वतंत्रता-बुद्धि का विवेक चुनाव में लौटा है। खतरे की चिंता में उन्हें हराने का भभका एक शक्ल पा गया है। वैसा इस बार भी, कमला हैरिस की उम्मीदवारी घोषित होने के बाद था। और मेरा अब भी मानना है कि आम जनता के वोटों, पोपुलर वोट में कमला हैरिस की हवा होगी लेकिन वे इलेक्टोरल वोटों याकि राज्यवार विशिष्ट मतदाता समूहों के प्रतिनिधियों में ट्रंप से आगे रहेंगी, इसके शक है।

ट्रंप का जीतना अमेरिका के लिए आत्मघाती होगा और दुनिया के लिए बुरा। अमेरिका में ट्रंप उर्फ जरासंध का नए रूप, नई जिद्द से शासन होगा! वे देश के भीतर अपने ‘दुश्मनों’ से बदला लेंगे। अमेरिका को तेरे-मेरे में बांटेंगे। कट्टरपंथी गोरे, कैथोलिक ईसाई धर्म के नाम पर वह व्यवहार, वे प्राथमिकता बनाएंगे, जिससे अमेरिका का मूल आधार बिखरेगा! अमेरिकी सभ्यता-संस्कृति का मूल आधार व्यक्ति की स्वतंत्रता, सभी को समान अवसर तथा बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान, उद्यमशीलता और सृजनात्मकता से समाज, प्रशासन तथा नागरिक जीवन का संचालन है। अमेरिकी राजनीति की खूबी है जो अनुदारवादी रिपब्लिकन और उदारवादी डेमोक्रेटिक दो पार्टियों में जनमानस के लिए समय-समय पर ऑल्टरनेटिव विकल्प उपस्थित होता है। और कोई भी राष्ट्रपति आठ वर्ष से अधिक व्हाइट हाउस में नहीं रह सकता। इसलिए सियासी प्रतिस्पर्धाओं, नेताओं के अहंकार के बावजूद न कोई ऱाष्ट्रपति हमेशा के लिए चक्रवर्ती राज का जरासंध जैसा सपना पाल सकता है और न बुद्धि और लोक चेतना पर ताले लग सकते हैं।

मैं रिचर्ड निक्सन-जेराल्ड फोर्ड और जिमी कार्टर के समय से अमेरिका के हर राष्ट्रपति चुनाव को ऑब्जर्वर करता रहा हूं। हर चुनाव के आगे पीछे चुनाव पर लिखा भी है। इस दौरान के दस राष्ट्रपतियों में डोनाल्ड ट्रंप वह शख्स हैं, जिससे आशा और निराशा का भंवर बना। और वह भंवर अब अमेरिका का भंवर होता लगता है। लाख टके का सवाल है डोनाल्ड ट्रंप से अमेरिका वापिस विभाजित कैसे हुआ?

जबकि पिछले चार वर्षों में यानी छह जनवरी 2020 को अमेरिकी संसद पर हमले से लेकर डोनाल्ड ट्रंप पर दायर मुकद्मों का चित्र जगजाहिर है। साथ ही ट्रंप खुले आम वह सब बोल रहे हैं, जो अमेरिकी-पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति के उन मूल्यों, प्राथमिकताओं और तासिर के खिलाफ है, जिन्हें उसने पुनर्जागरण के बाद अपनाया है। अमेरिका को वे मध्यकाल के चर्च-राज्य की साझा राजनीति में ले जा रहे हैं। अमेरिकी संविधान, व्यवस्था, संस्थाओं की स्वतंत्रता, चेक-बैलेंस की जगह उन्हें हिटलरशाही रास है। वे सबको ठोक देने, सबको देख लेने की ऐसी बातें कर रहे हैं, जो नस्लीय हैं, बदले की भावना में हैं। तभी अमेरिका फर्स्ट की जगह रियलिटी ट्रंप फर्स्ट की है।

इसलिए मैं बार-बार यह भी बूझ रहा हूं कि अमेरिकियों में मन ही मन क्या डोनाल्ड ट्रंप के खिलाफ चिढ़, नफरत नहीं हुई होगी? ट्रंप बनाम बाइडेन के मुकाबले में उम्र के तकाजे में लोगों के दिल-दिमाग में बाइडेन क्लिक नहीं थे और उन्होंने अचानक अपनी जगह कमला हैरिस को उम्मीदवार बनाया तो स्वयंस्फूर्त चौतरफा कमला हैरिस की वाह बनी। वह कैसे डोनाल्ड ट्रंप की उज्जड़ता के बावजूद मिटी मानी जा रही है? चुनाव कोई भी हो, कहीं भी हो, उसमें भावनाओं के अखाड़े ही हुआ करते हैं। अमेरिका जैसे विकसित देशों में बौद्धिक चेतना का जरूर रोल हुआ करता है। इस नाते अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के खिलाफ भावना उपस्थित तो दिखती है। ट्रंप को हर हाल में हराने की चाहना में ही बाइडन ने रिटायर हो कमला हैरिस को उम्मीदवार बनाया। डेमोक्रेटिक पार्टी ने झूमते हुए ठप्पा लगाया। पार्टी का हर पूर्व राष्ट्रपति, सभी बड़े नेता कमला हैरिस का प्रचार कर रहे हैं।

मेरा मानना है इसमें कमला हैरिस का जादू कम है और डोनाल्ड ट्रंप को हराने के इरादे का जज्बा अधिक है। तभी यह अकल्पनीय बात है कि पूंजीपतियों की पार्टी के डोनाल्ड ट्रंप को चंदा कम मिला है, जबकि कमला हैरिस को रिकॉर्ड तोड चंदा मिला है। कमला हैरिस को जितनी हस्तियों ने मंच पर आ कर समर्थन दिया है वह भी एक रिकॉर्ड है। कमला हैरिस के भाषण प्रभावी हैं। चुनाव खर्च, संसाधन, कार्यकर्ता अधिक हैं। उनकी सभाओं में भीड़ ज्यादा है। वे मेहनत अधिक कर रही हैं। खूब सभाएं हो रही हैं। इस सप्ताह उस टेक्सास राज्य में उनकी सभा थी, जो रिपब्लिकन पार्टी का गढ़ है। लेकिन गर्भपात के मुद्दे पर कमला हैरिस और उनकी टीम की शायद रणनीति है कि पूरे देश में महिलाएं जब अपने शरीर को ले कर निज फैसले के लिए आंदोलित हैं तो रिपब्लिकन पार्टी के गढ़ वाले राज्यों में भी महिलाएं उन्हें वोट देंगी!
इतना ही नहीं कमला हैरिस के लिए रिपब्लिकन पार्टी के प्रभावी चेहरे भी प्रचार करते हुए हैं। डेमोक्रेटिक पार्टी, लिबरल, वामपंथी, अश्वेत, महिलाओं आदि के सभी उदारवादी वोटों का समूह पूरी तरह कमला हैरिस के पक्ष में है। इनमें से डोनाल्ड ट्रंप याकि रिपब्लिकन पार्टी की ओर वोट शिफ्ट नहीं होने हैं, जबकि रिपब्लिकन पार्टी के वोट समूह में से खुल कर या मन ही मन कमला हैरिस के लिए वोट करने वाली भीड़ है। इतना ही नहीं डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति कार्यकाल के चीफ ऑफ द स्टाफ से लेकर पूर्व सेनाधिकारी ट्रंप को फासिस्ट, हिटलरवादी बतलाते हुए मतदाताओं से अपील कर रहे हैं कि घर बैठें लेकिन डोनाल्ड ट्रंप को वोट नहीं दें।

और यह सत्य भी सामने है कि लोग उन निर्णायक राज्यों में रिकॉर्ड तोड़ मतदान कर रहे हैं, जहां वोटिंग चालू है।
ठीक दूसरी तरफ डोनाल्ड ट्रंप ऐसे आत्मविश्वास मे हैं, जो कह रहे हैं कि मैं जीतने के बाद शपथ से पहले ही रूस-यूक्रेन युद्ध रूकवा दूंगा! जेलेंस्की-यूक्रेन तो गया! पद संभालते ही जैक स्मिथ (ट्रंप के खिलाफ अभियोजक) बरखास्त। मिलियंस प्रवासी घुसपैठियों को मेक्सिको में धकेलेंगे! एक साल में ईंधन की कीमतें आधी करेंगे आदि, आदी। मतलब माहौल, अनुमानों, मुद्दों, एजेंडे सब का मानों ट्रंप द्वारा टेकओवर!
दरअसल अमेरिका में दोनों पार्टियों, दोनों उम्मीदवारों के समर्थकों के वोट लगभग बराबर संख्या में पहले से तयशुदा हैं। इसलिए फैसला दोनों से अप्रतिबद्ध, तटस्थ, दुविधा और अनिश्चय से आखिरी समय में फैसला लेने वाले मतदाताओं से होना है। इन्हीं के लिए अब ट्रंप और कमला हैरिस की कैंपेनिंग है। इन्हें ले कर धारणा है कि इन्हें जिंदगी के रियल इश्यू रोटी, कपड़ा, मकान, महंगाई से मतलब है। बाइडेन के राज में महंगाई बहुत हुई तो इसके चलते ये ट्रंप को वोट देंगे। इनमें अमेरिका के बाकी दुनिया से नाता तोड़ आइसोलेशन याकि अमेरिका फर्स्ट का मूड है। इन मतदाताओं को लोकतंत्र की चिंता नहीं है। ये डोनाल्ड ट्रंप की लौह पुरूष की इमेज के कायल हैं। जाहिर है ईसाई कट्टरपंथी गोरों की धर्म राजनीति से ले कर दक्षिण अमेरिका से आकर बसे लोगों, विभिन्न प्रवासी समूहों आदि के ये वे वोट हैं जो देश-दुनिया की बजाय अपनी निज चिंता में अपना हित डोनाल्ड ट्रंप से मानते हैं।

इसलिए अमेरिका का यह चुनाव वैसे ही धुव्रीकरण वाला है, जैसे 2020 का था। तब भी डोनाल्ड ट्रंप के जीतने की हवा थी अब फिर वापिस अमेरिका में वैसी ही हवा है। पर मैं अपने पूर्वाग्रह में अमेरिकियों द्वारा अपनी बरबादी का रास्ता चुनने वाला आत्मघाती नहीं मानना चाहता। बावजूद इसके यह भी जानता हूं कि मानवता के इतिहास में उसका विवेक समय से भी निर्धारित होता है। इक्कीसवीं सदी को यदि जरासंध पैदा कर देशों और पृथ्वी (जलवायु परिवर्तनों, युद्धों, गृहयुद्धों, सभ्यता के संघर्षों, आर्थिक गुलामियों, अनिश्चितताओं) को बरबाद ही करना है तो समय के आगे भला क्या तर्क हो सकता है! इसलिए पांच नवंबर का अमेरिकी चुनाव सचमुच धडक़न बढ़ाने वाला है।