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राजनीतिक मकसद साधने की मंशा न हो

अजीत द्विवेदी
केंद्र सरकार ने जनगणना की अधिसूचना जारी नहीं की है, लेकिन एक, जनवरी 2025 से  प्रशासनिक सीमाएं सील हो जाएंगी और उससे पहले भारत के महापंजीयक और जनगणना आयुक्त मृत्युंजय कुमार नारायण का कार्यकाल अगस्त 2026 तक बढ़ा दिया गया है, जिससे यह संकेत मिल रहा है कि अगले साल जनगणना होगी। उसके अगले साल यानी 2026 में लोकसभा सीटों का परिसीमन होगा और फिर इसी आधार पर 2029 में साथ होने वाले चुनाव में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की जाएंगी। इस बीच तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने एक बड़ा सवाल उठाया है। उन्होंने एक सामाजिक कार्यक्रम में, जहां 16 नवविवाहित जोड़ों को आशीर्वाद दिया जाना था, वहां कहा कि ‘जब हम ऐसी स्थिति का सामना कर रहे हैं, जहां संसद में सीटों की संख्या कम होने वाली है तो हमें छोटा परिवार क्यों रखना चाहिए’?

इसके आगे उन्होंने नवविवाहित जोड़ों से ज्यादा बच्चे पैदा करने और उन्हें सुंदर तमिल नाम देने का आग्रह किया। हालांकि उन्होंने संसद में सीटों की संख्या कम होने के बारे में विस्तार से कुछ नहीं कहा लेकिन उनका इशारा परिसीमन के बाद की स्थितियों की ओर था। उनसे पहले आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने भी लोगों से ज्यादा बच्चे पैदा करने का आग्रह किया था। हालांकि उनका घोषित सरोकार यह था कि दक्षिण के राज्यों में आबादी बूढ़ी हो रही है और कामकाजी युवाओं की संख्या कम हो रही है। परंतु कहीं न कहीं वे भी इस बात से चिंतित हैं कि अगर आबादी के आधार पर लोकसभा सीटों का परिसीमन हुआ तो दक्षिण के राज्यों की राजनीतिक हैसियत घटेगी।

तभी यह बड़ा सवाल है कि लोकसभा सीटों के परिसीमन का आधार क्या होगा? क्या सीधे तौर पर जनसंख्या के हिसाब से सीटों की संख्या में बढ़ोतरी कर दी जाएगी? अगर ऐसा हुआ तो उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र जैसे बड़ी आबादी वाले राज्यों को फायदा होगा और दक्षिण भारत के राज्य घाटे में रहेंगे। तभी चंद्रबाबू नायडू और एमके स्टालिन की चिंता सामाजिक या आर्थिक नहीं, बल्कि राजनीतिक दिखती है। यह चिंता क्षेत्रीय वर्चस्व और फिर अस्मिता की राजनीति में भी बदल सकती है, जिससे एक बड़ा खतरा पैदा हो सकता है।

इसलिए सरकार को परिसीमन के फॉर्मूले के बारे में तर्कसंगत तरीके से विचार करना होगा और उस पर सभी दलों व राज्यों की सहमति अनिवार्य रूप से लेनी होगी। ध्यान रहे लोकसभा सीटों का परिसीमन जम्मू कश्मीर की तरह नहीं होगा, जहां मनमाने तरीके से भौगोलिक सीमाओं का ध्यान रखे बगैर इस तरह से विधानसभा सीटों का सीमांकन हुआ कि जम्मू क्षेत्र में छह सीट बढ़ गई और कश्मीर घाटी में सिर्फ एक सीट बढ़ी।

आजादी के बाद से मोटे तौर पर आबादी के आधार पर ही लोकसभा और विधानसभा सीटों की संख्या तय होती रही है। तभी उत्तर प्रदेश में 80 सीटें हैं और तमिलनाडु में 39 हैं। लेकिन आजादी के बाद राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रण के उपायों को अलग अलग तरीके से लागू किया। आर्थिक रूप से विकसित राज्यों ने बेहतर ढंग से जनसंख्या नियंत्रण का किया तो उनके यहां जनसंख्या वृद्धि की दर राष्ट्रीय औसत से काफी नीचे आ गई। दक्षिण के राज्यों में तो जनसंख्या बढऩे की दर रिप्लसमेंट रेट से भी कम है। रिप्लेसमेंट रेट 2.1 है। इसका मतलब होता है कि अगर दो लोग मिल कर 2.1 बच्चे पैदा करते हैं तो जनसंख्या नहीं बढ़ेगी वह स्थिर हो जाएगी। दक्षिण के राज्यों में जनसंख्या बढऩे की दर 1.6 फीसदी है, जो रिप्लेसमेंट रेट से काफी कम है, जबकि उत्तर के राज्यों खास कर बिहार और उत्तर प्रदेश में वृद्धि दर रिप्लेसमेंट रेट से ज्यादा है।

ऐतिहासिक रूप से यह स्थिति रही है तभी दक्षिण के राज्यों में आबादी नियंत्रित हो गई और उत्तर भारत के राज्यों में बढ़ती चली गई। हालांकि अब वहां भी रफ्तार धीमी हो रही है लेकिन उन राज्यों की जनसंख्या बहुत ज्यादा है। अगर इस आधार पर उनकी लोकसभा सीटें बढ़ती हैं तो यह उन राज्यों के साथ अन्याय होगा, जिन्होंने अपने यहां आबादी का बढऩा रोका। उन्होंने अच्छा काम किया इसके लिए उनको सजा नहीं दी जानी चाहिए।

अगर सरकार पारंपरिक रूप से आबादी को आधार बनाती है और औसतन 20 लाख की आबादी पर एक सीट का फॉर्मूला तय होता है तो दक्षिण के ज्यादातर राज्यों में सीटों में कोई बदलाव नहीं होगा, जबकि उत्तर प्रदेश में सीटों की संख्या 80 से बढ़ कर 120 हो जाएगी। बिहार में 40 से बढ़ कर 70 हो जाएगी। सोचें, इससे इन राज्यों की राजनीतिक हैसियत कितनी बढ़ जाएगी? अगर ऐसा होता है तो ओवरऑल लोकसभा की सीटों में बड़ी बढ़ोतरी करनी होगी। वैसे नए संसद भवन में इसकी तैयारी पहले हो चुकी है। नए संसद भवन में निचले सदन यानी लोकसभा में 880 सांसदों के बैठने की व्यवस्था है। अगर संख्या इतनी नहीं भी बढ़ाएं तब भी आठ सौ तक संख्या जा सकती है। इस फॉर्मूले से यानी आबादी के अनुपात में सीटों की संख्या बढ़ाने का फैसला होता है तो दक्षिण के सभी राज्यों को मिला कर करीब 20 सीट का फायदा होगा। लेकिन उत्तर और पश्चिम भारत के राज्यों में डेढ़ सौ से ज्यादा सीटें बढ़ जाएंगी।

अगर सरकार लोकसभा सीटों की संख्या नहीं बढ़ाने का फैसला करती है तब परिसीमन में जनसंख्या का पैमाना 30 लाख की आबादी पर एक सीट का रखना होगा। अगर ऐसा किया जाता है तब उत्तर प्रदेश में 80 और बिहार में 42 सीटें होंगी। लेकिन ऐसे में कम से कम आठ राज्य ऐसे होंगे, जहां लोकसभा की एक भी सीट नहीं बनेगी क्योंकि उन राज्यों की आबादी 30 लाख से कम है। अगर किसी भी राज्य में जीरो सीट नहीं रखनी है यानी चाहे जितनी आबादी हो उसे कम से कम एक लोकसभा सीट देनी है तो सबसे छोटे राज्य की आबादी के हिसाब से एक सीट का फॉर्मूला बनाना होगा। ऐसे में ओवरऑल सीटों की संख्या में छह सीटों की बढ़ोतरी होगी यानी कुल सीट संख्या 549 हो जाएगी। लेकिन उत्तर प्रदेश में तब भी 12 सीटें बढ़ जाएंगी। बिहार में भी 10 सीटों का इजाफा होगा। राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात आदि में भी ठीक ठाक बढ़ोतरी होगी। इसके बरक्स पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु आदि में सीटों की संख्या घटेगी।

इनमें से कोई भी फॉर्मूला बहुत युक्तिसंगत नहीं लगता है। सीटों की मौजूदा संख्या कायम रखने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि आबादी बहुत बढ़ चुकी है और एक सांसद के लिए इतनी बड़ी आबादी का प्रतिनिधित्व करना संभव नहीं है। लेकिन सीटों की संख्या सीधे आबादी के आधार पर बढ़ा देना भी युक्तिसंगत नहीं है। सो, जनसंख्या, भौगोलिक क्षेत्र और जीडीपी तीनों के औसत को आधार बनाना चाहिए। यानी किसी राज्य की जनसंख्या बहुत ज्यादा है और उसका कुछ फायदा उसे मिलता है तो किसी और राज्य को उसका भौगोलिक क्षेत्र ज्यादा बड़ा होने का फायदा मिलना चाहिए तो किसी राज्य को जीडीपी में ज्यादा योगदान करने का फायदा मिलना चाहिए। साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी राज्य के साथ अन्याय नहीं हो। किसी भी राज्य की राजनीतिक और विधायी हैसियत अनुपात से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। सभी पार्टियों को साथ लेकर उनकी सहमति से परिसीमन का फॉर्मूला तय करना चाहिए। साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि इसके पीछे कोई राजनीतिक मकसद साधने की मंशा न हो।